30.... मई हिंदी पत्रकारिता दिवस, इस दिन की आप सबको बधाई दी जाए या अपनी समीक्षा की जाए।मेरे विचार से समीक्षा ज़्यादा बेहतर है। वरना हर आदमी"मियां मिट्ठू"बना हुआ घूम रहा है।
.........पत्रकारिता को लोकतंत्र का चौथा मज़बूत स्तंभ कहा जाता है।मेरे विचार यह धारणा मन मे इसलिए उत्पन हुई होगी के इसने हर भाषा मे स्वतंत्रता आंदोलन मे सियाही की जगह लहू की आहुति दी थी........अब जब सबकुछ बदल गया है।हद यह है कि संविधान बदलने के लिए"अबकी बार 400 पार"नारा गूंज रहा हो....और इसकी गूंज को गूंज देने मे.... प्रिंट,एल्क्ट्रोनिक और सोशल मीडिया के स्वस्थ, अस्वस्थ, शिक्षित, अशिक्षित, बेगुनाह, गुनाहगार..... हर व्यक्ति कूद पड़ा है और लगा धर्म, जाति,समुदाय, सरकार,व्यक्ति विशेष की पैरवी करने...उसने शैतान को फरिश्ता,बेगुनाह को गुनाहगार साबित करना शुरू कर दिया..... हर समाचार मे वो धार्मिक दृष्टिकोण ढूंढने लगा.....अब उसकी ख़ुद की रगो मे भी यह सांप्रदायिकता बनकर बहने लगा है..........इन हालात मे चौथा स्तंभ भर भराकर गिर ही जाना था.....चंद रुपए, खाना, नाश्ता, सम्मान, विज्ञापन,भेंट, नकदीकरण....और सबसे राज्यसभा की सदस्यता.....धर्म का नशा अफीम बन गया... इसीलिए बिना शोध के समाचारों का प्रकाशन, प्रसारण ज़हर बन गया है।इन हालात मे इसकी कोई संवैधानिक मान्यता तो रही नही।यह अलग बात के सरकार बनाने और गिराने मे आज भी इसकी महत्वपूर्ण भूमिका है।
.......अभी भी चंद लोग देश मे पत्रकारिता के दिए की हिफाज़त कर रहे हैं।सदियों का अवलोकन बताता है की समाज को सही या गलत दिशा देने मे धर्मगुरुओं, लेखकों, शायरों, कवियों, राजनेताओं और पत्रकारों की सदैव अहम भूमिका रही है.....आज भी यही हालत है....मतलब आज जिस समाज को लेकर हम त्रस्त हैं उसको सुधारने मे आज भी पत्रकार और पत्रकारिता के स्तर को ऊपर उठाना होगा....और स्वयं अपने कर्तव्य का निर्वाह देश और समाज हित मे करना होगा......जिस दिन हम धर्म, जाति, समुदाय, राजनीति से बाहर निकलकर लिखने लगे तो.....यह देश वही देश होगा जिसके चमन में एकता, अखंडता, भाईचारे, सहयोग, सभ्यता, संस्कृति, सामूहिक आयोजनों, त्योहारों की बहार होगी.....तभी 30 मई का हक़ अदा होगा। वरना सूरज, चांद, समय,जीवन गतिमान है, उसको कौन रोक सकता है...मगर 30 मई अगले वर्ष फिर आएगी चंद उलझे प्रश्नों के साथ।
विचार: कमल देवबंदी
(वरिष्ठ लेखक व अध्यापक)
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