दारुल उलूम देवबंद--अंग्रेज़ी---के बाद अब "बेहिशती ज़ेवर" : कमल देवबंदी।

पिछले दिनों दारुल उलूम देवबंद के वरिष्ठ उस्ताज़ हज़रत मौलाना अरशद मदनी ने मस्जिदे रशीद में छात्रों को संबोधित करते हुए कहा कि "कुछ छात्र रहते दारुल उलूम में हैं, खाते यहीं का हैं। मगर उनकी सारी दिलचस्पी दारुल उलूम से बाहर चल रहे इंग्लिश कोचिंग सेंटर्स में है। यदि ऐसे छात्र शिक्षण समय मे कोचिंग सेंटर्स में मिले तो उनके विरुद्ध दंडात्मक कार्यवाही की जाएगी। उन्होंने आगे कहा कि वो जिस मक़सद से देवबंद आए हैं, पहले उसको पूर्ण करें इस कारण से उनका सलेब्स पूरा नही हो पाता"। दारुल उलूम ने इसको नोटिस के रूप में भी छात्रों को चेताने के उद्देश्य से चस्पा भी कर दिया।
  धीरे-धीरे यह नोटिस सोशल मीडिया में आया और एक वर्ग विशेष ने प्याली में तूफान ला दिया। बात यहाँ तक आ गई के बिना किसी अधिकार सरकार, प्रशासन, मंत्री, संतरी, टी.वी. और प्रिंट मीडिया सब नहा-धोकर कूद पड़े और अपने अधिकार क्षेत्र से बाहर की बात करने लगे। 
अब कल दिल्ली से एक सड़क छाप संस्था सामाजिक संस्था "मानुषी सदन" ने हकीम उल उम्मत मौलाना अशरफ अली थानवी की पुस्तक "बेहिशती ज़ेवर" को निशाना बनाया है।आरोप है कि दारुल उलूम में नाबालिगों की शादी, आपराधिक हमले, दुष्कर्म, अवैध सम्बन्धों की पढ़ाई होती है। यह किताब बालिकाओं के लिए है----यह किसी भी मदरसे के पाठ्यक्रम में शामिल नही है----मौलाना अशरफ अली थानवी का इंतक़ाल 1943 में हो गया था। मानुषी सदन को 80 साल बाद होश आया। यह फितना नही तो क्या है।

     सन 1866 में जब दारुल उलूम की स्थापना हुई तो उस समय निर्णय लिया गया कि दारुल उलूम कभी भी सरकार या सरकारी संस्थानों से सहयोग नही लेगी। दारुल उलूम आज भी उस पर क़ायम है।1866 से 1947 तक 81 वर्षों में दारुल उलूम ने कभी अंग्रेज़ी सरकार से मदद नही ली। 1947 से 2023 तक उसने कभी भारत सरकार से आर्थिक सहयोग नही लिया है। जबकि अंग्रेज़ी सरकार ने कई बार अपने गुप्तचरों के माध्यम से दारुल उलूम के आय-व्यय की जानकारी लेनी चाही। मगर उसे हमेशा असफलता हाथ लगी।अंग्रेज़ी सरकार भी यही जानना चाहती थी के आख़िर इतना बड़ा बजट यह संस्था कैसे पूरा करती है। आज भी चंद मानसिक रोगी विदेशी फंडिंग, आतंकवाद, लव जिहाद और धार्मिक कट्टरता के आरोप इस संस्था पर लगाते हैं। 
        यह खेद का विषय है कि देश चलाने वाले, स्वयं को देशभक्त कहने वाले, धर्मों के ठेकेदार, संस्कृति और सभ्यता के बचाव के दावेदार ना कभी दारुल उलूम में आते हैं और ना कभी इसके इतिहास और क़ुरबानी को जानने का प्रयास करते हैं।यह हालत ग़ैर-मुस्लिम्स की नही मुस्लिम्स की भी है।हर संस्था के स्थापना का एक उद्देश्य होता है।समय के साथ उनमें ज़रूरत के अनुसार परिवर्तन भी होता है।मगर उसके मूल उद्देश्य को कभी नही छोड़ा जाता। 1857 के ग़दर के बाद अंग्रेज लगभग भारतवर्ष पर कब्ज़ा जमा चुके थे। उन्होंने यह हुकूमत मुसलमानों (मुगलों) से छीनी थी।इसलिए हुकूमत छीनने, मदरसों, मस्जिदों और उलमा को शहीद किए जाने का दर्द मुस्लिम्स के दिल मे था। इसलिए उन्होंने इस्लाम धर्म को बचाने और अंग्रेजों के ख़िलाफ़ लामबंदी करने के उद्देश्य से इस संस्था की स्थापना की।देश के हमारे हिन्दू भाई जैसे मुग़ल काल मे थे ऐसे ही अंग्रेज़ी शासन में रह रहे थे।याद रखो कोई आदमी, समूह, शासक, हमलावर उस समय तक शासन नही कर सकता जब तक स्थानीय लोगों का सहयोग ना हो।यहां मुगलों और अंग्रेजों के पैर किसने जमने दिए मन से सोचकर निर्णय लो।हर व्यक्ति को अपना राज-काज प्यारा होता है।इसलिए वो दोनों ताकतों के सामने नतमस्तक हो गय।
  दारुल उलूम ने अपनी स्थापना के बाद अंग्रेजों के भरपूर संघर्ष किया।देश का पहला अंग्रेजों के विरुद्ध फतवा हज़रत शाह वलीउल्लाह का आया।हज़रत शेख़ उल हिन्द मौलाना महमूद हसन देवबन्दी ने "रेशमी रुमाल आंदोलन"अंग्रेजों के विरुद्ध छेड़ा।उन्होंने योग्यता के अनुसार अपने शागिर्दों को कार्ये सौंपे। एक वर्ग अंग्रेजों के विरुद्ध लड़ने को तैयार किया,दूसरे को तबलीग़ में लगाया,तीसरे को उन्होंने इस्लाम धर्म की शिक्षा की कमान दी।देहली में जामिया मिल्लिया इस्लामिया की स्थापना में ना सिर्फ सहयोग दिया।साथ ही शिलान्यास के अवसर पर उपस्थित रहे।अगर दारुल उलूम किसी विशेष भाषा या भाषाओं के ख़िलाफ़ होता तो कभी भी हज़रत शेख़ उल हिन्द वहां उपस्थित ना होते।दारुल उलूम के हज़ारों छात्रों ने स्वतंत्रता आंदोलन में प्रतिभाग किया,जेल गए,इतिहास गवाह है 14 हज़ार उलमा अंग्रेजों दुवारा फांसी पर लटकाए गए।जिनमे अधिकांश दारुल उलूम के छात्र थे।स्वयं हज़रत शेख़ उल हिन्द अपने शागिर्दों सहित माल्टा की जेल में लंबे समय तक रहे।हज़ार बार अंग्रेज़ी सरकार ने माफी का प्रस्ताव रक्खा मगर उन्होंने अस्वीकार दिया,कई स्वतंत्रता मुस्लिम सेनानी उस अवधि में वहां मरे।मगर आप सभी जानते हैं कि आज उन लोगों को आदरणीय और पूजनीय बता रहे हैं।जिन्होंने माफीनामे लिखे थे।नमक आंदोलन में हज़रत अल्लामा अनवर शाह कश्मीरी रह.ने अपने फतवे के माध्यम से गांधी जी के नमक आंदोलन को सहयोग दिया।देश का बंटवारा हुआ तो दारुल उलूम देवबंद ने इसका जमकर विरोध किया।मौलाना अबुल कलाम आज़ाद और शैख़ उल इस्लाम मौलाना हुसैन अहमद मदनी रह.ने मुसलमानों को भारत मे रहने के लिए अपील की,संघर्ष किया,मुस्लिम लीग से मुक़ाबला किया।मगर आज आज़ाद भारत के पहले शिक्षा मंत्री को पाठ्यक्रम से निकाल दिया गया।यह इंसाफ है--?इनाम है--?क्या है।
     और आगे चलिए। दारुल उलूम के दरवाज़े कभी किसी धर्म के व्यक्ति के लिए बंद नही हुए।दारुल उलूम ने गाएं की क़ुरबानी के ख़िलाफ़ फतवा दिया।आतंकवाद के नाम पर मुसलमानों और मदरसों को बदनाम करने वालों को मुंहतोड़ जवाब दिया और राष्ट्रीय स्तर का सम्मेलन देवबन्द में आयोजित कर आतंकवाद का विरोध किया।समय-समय पर दारुल उलूम कश्मीर और पाकिस्तान में आतंकी घटनाओं पर अपना पक्ष रख भारत और भारतीय सरकार का समर्थन करता रहा है।दारुल उलूम के किसी उस्ताज़ का आजतक आतंकियों से कोई संपर्क सामने नही आया ना कोई छात्र अंदर से ऐसा पकड़ा गया हो जिसका आतंकी संगठन से सम्बंध हो।ना कभी दारुल उलूम से अवैध हत्यारों का ज़खीरा मिला,ना कभी किसी उस्ताज़ या छात्र को धर्म परिवर्तन,लव जिहाद और लीव इन रिलेशनशिप मे पाया गया।मगर यहां से दूर बैठे मानसिक विकलांग इस पर आरोप लगाते रहते हैं।
     आज दारुल उलूम 1866 से निःशुल्क शिक्षा, निवास, दोनों समय का भोजन,पानी,बिजली,पुस्तकालय,छात्रवर्ती और अन्य सुविधाएं देने वाली संस्था है।इसी की राह पर चलते हुए देश-विदेश में हज़ारों मदरसे हैं।जो यह निःशुल्क शिक्षण कार्ये कर रहे हैं।दूसरी ओर देश मे 1995 से लागू "सर्व शिक्षा अभियान"अरबों रुपये खर्च करके भी असफल है।निरंतर सरकारी स्कूल्स से छात्र संख्या घट रही है और मदरसों और मदरसा छात्रों की संख्या बढ़ रही है।यहाँ की डिग्री की कोई सरकारी मान्यता नही जो वो शिक्षा पूर्ण होने के बाद नोकरी मांगते हों।देश की 20 से 25 प्रतिशत आबादी का शिक्षा का भार इन मदरसों ने अपने ऊपर ले रक्खा है।आपके सहयोग के बगैर पूरे विश्व मे यह व्यवस्था कहीं हो तो उल्लेख होना चाहिये।हमारे विचार से तो सरकार को और पूरे देश को शिक्षा के क्षेत्र में इस अमूल्य योगदान के लिए प्रोत्साहित करना चाहिए।गत डेढ़ सदी में दारुल उलूम ने एक लाख से अधिक आलिम,फ़ाज़िल,हाफ़िज़,मुफ़्ती,भाष्यकार,लेखक,शायर,पत्रकार,अनुवादक दिये।जिन्होंने देश-विदेश में भारत का नाम रोशन किया।इस संस्था से जुड़े कई लोग राष्ट्रीय सम्मान प्राप्त कर चुके हैं और राज्यसभा और लोकसभा में नेतृत्व कर चुके हैं।
दारुल उलूम ने स्वयं हिंदी-अंग्रेज़ी,हस्तलेखन कला,सिलाई,जिल्दबन्दी और कंप्यूटर के विभाग स्थापित कर रखे हैं।मगर वो दूर से बैठकर नज़र नही आएंगे।दारुल उलूम के पुस्तकालय में हर धर्म का धार्मिक ग्रन्थ रखा हुआ है हमेशा से।अगर दारुल उलूम संकुचित मानसिकता का होता तो यह सब होता।आज मंदिरों के बाहर दुकान लगाने वाले मुसलमानों को उत्तराखंड में भगा रहे हैं।मगर आज भी दारुल उलूम के सामने जूते मरम्मत करके रोज़ी-रोटी कमाने वालों की चौथी पीढ़ी आ गई है।कभी उन्ही से आकर और मिलकर हमारा व्यवहार पूछ लो,कुछ तो करो,क्या सब निर्णय और निशाने आंखों पर पट्टी बांधकर दूर से लगाते रहोगे।आरम्भ से सफाईकर्मी बाल्मीकि समाज से हैं।गत 40 वर्षों से एक हिन्दू ठेकेदार दारुल उलूम में सेनेटरी का काम कर रहे हैं।इनसे मुलाक़ात करो।पूछो--दारुल उलूम के क्या मामलात हैं उनके साथ।आज बारह हज़ार के क़रीब मदरसा छात्र बाहर से यहां रह रहे हैं।जनपद तो दूर प्रदेश में भी कोई ऐसा क़स्बा नही है।जहां इतनी रौनक़ होगी।सभी छात्र जीवनयापन का सभी सामान यहीं से लेते हैं।जिनसे स्थानीय लोगों की अर्थव्यवस्था मज़बूत हो रही है।आज देवबन्द में कपड़े,टेलरिंग,वास्कट,इत्र, टोपी,पुस्तक प्रकाशन,मुद्रण,होटल व्यवसाय में अपना विशेष स्थान रखता है।क्या करोड़ों के इस कारोबार से स्थानीय हिन्दू दुकानदार लाभांवित नही हो रहे हैं।कम से कम हिन्दू समाज में स्वयं को बुद्धिजीवी कहने वालों को आगे आकर ईमानदारी से इन सब बातों को रखना चाहिए।।
 क़स्बे में 100 से अधिक वर्ष देवी कुंड पर"सँस्कृत महाविधालय"को स्थापित हुए हो गए।आज तक किसी ने इस पर भाषा और परिणाम को लेकर चर्चा की।किसी को चिंता हुई के यहां से निकलकर छात्र क्या करेगा--?वहां क्या हो रहा है---?देश-प्रदेश में संस्कृत भाषा का क्या भविष्य है---?फिर दारुल उलूम में अंग्रेज़ी को लेकर चिंता क्यूँ--?
------अब ज़रा दो बात--- लोकतंत्र के अनपढ़ चौथे स्तंम्भ के ठेकेदार पांचवीं पास पत्रकारों से भी कर ली जाए।इस संसार में और वर्तमान में अनपढ़ आदमी सबकुछ बन सकता है।मगर वैज्ञानिक, दार्शनिक, बुद्धिजीवी,पत्रकार,शायर,कवि और लेखक नही बन सकता।मगर विडंबना देखिए इस देश को"विश्व गुरु"बनने में यह अनपढ़ समूह भी खुला योगदान कर रहा है।किसी विषय,मुद्दे,विवाद पर चर्चा करनी हो तो उसकी पूरी जानकारी लो।यह पहला उसूल है, अगर उस मुद्दे की भाषा और विषय से अपरिचित हो तो किसी से ज्ञान लो,सहायता लो,ज्ञान बढ़ाओ।किसी समाचार,सूचना,फतवे के अंतर को समझो।हिन्दू-मुस्लिम का चश्मा लगाकर अपना ज्ञान मत बाटों।क्यूंकि वो तो तुम्हारे पास पहले से नही है।नोटिस, चेतावनी,सलाह-मशवरा अलग-अलग शब्द हैं।इनके अर्थ अलग-अलग हैं।हर नोटिस फतवा नही होता---दारुल-उलूम स्वयं से किसी मुद्दे पर फतवा नही देता।फतवे का सीधा अर्थ है कोई व्यक्ति अपनी धार्मिक(शरई)समस्या पर विषय विशेषयगों(मुफ्तियों)से राय ले।उनका फ़र्ज़ बनता है वो राय दें।अब कोई अमल करे ना करे।आज आप मकान,दुकान और कोई भी निर्माण कार्ये करते हैं, तो वास्तुशास्त्र या वास्तुकला की राय लेते हैं।बीमार होते हैं तो डॉक्टर्स की सलाह लेते हैं।वो टेस्ट लिखता है, अल्ट्रासाउंड कराता है---हम ख़ुशी-ख़ुशी करते हैं।यही राय है, यह जीवन बचाती है।यही काम मुफ़्ती,मौलवी करते हैं।जो आपकी दुनिया और आखरत(परलोक) दोनों संवारते हैं।
आज दिन-रात ख़बरें आती हैं"पत्रकार सम्मान समारोह"की मगर कोई ख़बर "पत्रकार प्रशिक्षण" या "पत्रकार कार्येशाला"की नही आती।साल भर या 6 माह में इनको भी लेखन की नोक-पलक संवारने के हुनर बताना चाहिए।यह कमाल ही तो कि जिसने कभी क़ुरआन शरीफ आंख से या छूकर नही देखा वो भी उसमें कमियां निकालता है।उनको यही मालूम नही के क़ुरआन शरीफ अकेली आसमान से उतरी हुई धार्मिक ग्रन्थ है।जिसकी हिफाज़त अल्लाह ने ख़ुद क़यामत ले रक्खी है।उसने इसको करोड़ों लोगों के दिलों में कंठस्थ कर दिया है।अब आरोप लगाओ या आग लगाओ तुम्हारी मर्ज़ी।दुनिया के किसी कोने में किसी मुस्लिम ने कभी "रामायण" या "महाभारत"का अपमान किया है।धार्मिक,संस्कारी और अच्छे लोगों की पहली और आख़री पहचान यह है कि वो हर धर्म का सम्मान करते हैं।हिजाब खींचना,दाढ़ी नोंचना,चलती ट्रेन या बस से विशेष धर्म के लोगों को धक्के देना,अपमानित करना,मारपीट करना,व्यापार का बायकॉट करना,उनसे भेद-भाव करना यह किसी भी धर्म मानने वालों के कर्म नही हो सकते।क्या हर चुनाव से पहले देश मे ज़हर घोलना ज़रूरी है।लोगों को बांटना,उन्हें उकसाना चुनाव जीतने का मूलमंत्र बन चुका है।।
--------क्या इन साम्प्रदायिक ईंटो से,नफरत के सीमेंट से,दुष्प्रचार के रेत से भारत को"विश्व गुरु"बनाआगे------------अब दारुल उलूम को बैकफुट के बजाए फ्रण्टफूट पर आना चाहिए----उसे मानुषी सदन पर कम से कम 50 करोड़ रुपये का मानहानि का मुक़दमा करना चाहिए---तभी इन ऊल-झलूल संस्थाओं को पता चलेगा।
-------------आप से निवेदन है इस लेख को जमकर फारवर्ड करें। यह आपकी ज़िम्मेदारी में भी शामिल है----अपने होने का हक़ अदा कीजिये---ताकि इस रंग बदलती दुनिया को हक़ीक़त पता चले।।

कमल देवबंदी। (वरिष्ठ लेखक)

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