"दा कश्मीर फाइल्स" नया खेल नही---खेल की शुरुआत है।

"दा कश्मीर फाइल्स" नया खेल नही---खेल की शुरुआत है।
पूर्व चुनाव आयुक्त एस. वाई. क़ुरैशी ने आज एक महत्वपूर्ण साक्षात्कार में बहुविक्षिप्त फ़िल्म "दा कश्मीर फाइल्स" को आतंकवाद की कड़ी बताकर ना सिर्फ हक़ और सच बोला बल्कि सिनेमा के दरुपयोग पर भी सवाल खड़े किए।
गत सदी के आरंभ से ही सिनेमा भारत मे मनोरंजन का सरल और सस्ता साधन रहा है।भारत मे हमेशा सिनेमा काल के अनुसार बना।आरम्भ में धार्मिक और ऐतिहासिक फिल्मों का निर्माण हुआ।
60 के दशक में प्रेमकहानियों और सामाजिक मुद्दों का भरपूर ज़ोर रहा।1960 से 70 के बीच हिंदी फिल्मों का सुनहरा दौर माना जाता है। दलीप कुमार, राजकपूर, राजिंदर कुमार, शम्मी कपूर, बिस्वाजीत, जॉय मुखर्जी, धर्मेंद्र, राजेश खन्ना, मनोज कुमार, जितेंद्र सभी ने संगीतमय रोमांटिक फिल्मों में अभिनय किया।
इस बीच मे बी.आर.चोपड़ा, राजकपूर, राज खोसला, ऋषिकेश मुखर्जी, सुनील दत्त, गुलज़ार और अन्य निर्देशकों ने सामाजिक मुद्दे भी उठाए। धूल का फूल, रेशमा और शेरा, मुझे जीने दो, नया दौर, हमराज़, गुमराह, तवायफ उपकार, दर्द का रिश्ता, यह आग कब बुझेगी, जिस देश मे गंगा बहती है, कर्म, आज की आवाज़, कल की आवाज़, प्रेमरोग, ख़ामोशी, माचिस, निकाह, इंसाफ का तराजू, आवारा, शराफत, मिली, आंनद, जूली, रोटी कपड़ा और मकान,आदमी और इंसान, कलयुग सहित सेकंडों फिल्में बनी।इनका ताना-बाना आम भारतीय था।इसलिए यह यादगार और कामयाब फिल्में रहीं।दूसरी तरफ मुग़ले आज़म, आरज़ू, शोले, गंगा जमुना, दीवार,  पाकीज़ा का अपना रंग और जलवा अलग था। यह जलवा 90 के दशक तक शाहरुख़ खान ने बरक़रार भी रखा।
मगर सन 2000 तक आते-आते सिनेमा ने साम्प्रदायिकता की चादर ओढ़नी शुरू कर दी थी। इसको भरपूर ताक़त दी अनिल शर्मा की "गदर-एक प्रेम कथा" ने जोो "दा कश्मीर फाइल्स" की तरह सोच-समझकर आग लगाने के लिए बनाई गई थी। इसका मुख्य चरित्र तारा सिंह-----विभाजन के समय काफी नरसंहार और बलात्कार की घटनाओं को अंजाम दे चुका था। अनिल शर्मा ने उसको खलनायक से नायक बनाकर पेश किया----हालांकि इससे पहलेे "रोजा" और "बॉम्बे" पर विवाद हो चुका था।
गदर---की सफलता के बाद टोपी, रुमाल, तस्बीह, पठानी सूट से सजा---हर मुस्लिम आतंकी और देश का दुश्मन हिंदी सिनेमा ने घोषित कर दिया। सन्नी देओल, अक्षय कुमार, अजय देवगन तो आजतक इसी ट्रेक पर चलकर नोट बटोर रहे हैं-----मगर---मगर---दा कश्मीर फाइल्स के साथ सत्ता, मीडिया, तंग ज़हन, बीमार लोग भी खड़े हो गए।जो इससे पूर्व नही हुआ था----यह आर्ट, सिनेमा, प्रचार माध्यम, सत्ता---सबका दरुपयोग है।
इसी फिल्म इंडस्ट्री में हज़ारों फिल्में मुस्लिम कल्चर और उनकी क़ुरबानी और दोस्ती पर बनी। जहाँ एक हिन्दू दोस्त के लिए मुस्लिम दोस्त ने जान दी हो। कई फिल्मों में पठान का चरित्र क़ुरबानी का प्रतीक बना----मगर अब यही चरित्र नायक से खलनायक बन चुका है-----जो बिकता है----वो दिखता है।उम्मीद की जानी चाहिए----दा कश्मीर फाइल्स के पार्ट्स वन और टू भी आएँगे। कहाँ 1975 में ज़ंजीर का शेरखान-----कहाँ "दा कश्मीर फाइल्स"।

कमल देवबंदी (वरिष्ठ लेखक समीक्षक)

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