दलित मुस्लिमों और दलित ईसाईयों को भी अनुसूचित जाति का दर्जा दिया जाए, जमीयत प्रमुख मौलाना महमूद मदनी ने सुप्रीम कोर्ट में दाखिल की याचिका।

नई दिल्ली: जमीयत उलेमा-ए-हिंद ने मंगलवार को सुप्रीम कोर्ट से दलित मुसलमानों और दलित ईसाईयों को भी अनुसूचित जाति का दर्जा दिए जाने की मांग की है ताकि वह सरकारी नौकरियों और शिक्षण संस्थानों में आरक्षण का लाभ उठा सकें। इस सम्बंध में जमीयत ने अनुच्छेद 341 में धर्म के आधार पर किए गए भेदभाव को समाप्त करने का अनुरोध किया है और इसे भारत के संविधान की भावना के विरुद्ध बताया है।
जमीयत उलेमा-ए-हिन्द के अध्यक्ष मौलाना महमूद मदनी द्वारा दायर याचिका में सच्चर कमेटी, रंगनाथ मिश्रा आयोग और राष्ट्रीय अल्पसंख्यक आयोग 2008 की रिपोर्ट को सबूत के तौर पर पेश किया गया है। याचिका में इस तथ्य का भी स्पष्ट रूप से उल्लेख किया गया है कि इस्लाम एक धर्म के रूप में सभी के दरमियान समानता की सीख देता है जो कि इस्लामी आस्था और सोच का एक अटूट सिद्धांत और मौलिक हिस्सा है। 
इस्लामी जीवन दर्शन में जाति व्यवस्था को मान्यता नहीं दी गई है, लेकिन इस सच्चाई को नकारा नहीं जा सकता है कि भारत के मुसलमानों पर हिंदू समाज का प्रभाव है, इसलिए मुस्लिम समाज में भी जाति व्यवस्था और उस पर पड़ने वाले सामाजिक प्रभाव पाए जाते हैं। स्वयं सुप्रीम कोर्ट ने इंदिरा साहनी मामला बनाम यूनियन ऑफ इंडिया में भारतीय मुसलमानों में जाति व्यवस्था को स्वीकार किया है। सच्चर कमेटी ने भी अपनी 2006 की रिपोर्ट में अशराफ, अजलाफ और अरजाल के बीच मुसलमानों को विभाजित किया है। साथ ही यह बात भी विशेष रूप से उल्लेखनीय है कि 2008 में राष्ट्रीय अल्पसंख्यक आयोग ने दलित मुसलमानों और दलित ईसाईयों पर एक रिपोर्ट तैयार की थी, जिसमें यह लिखा है कि शहरी भारत में दलित मुसलमानों की 47 प्रतिशत आबादी गरीबी रेखा से नीचे जीवन यापन करती है, जो कि हिंदू दलित और ईसाई दलित से कहीं अधिक है। इन परिस्थितियों में भेदभाव का यह रूप अनुचित है और संविधान के अनुच्छेद 14, 15 के विरुद्ध है। यह तर्क भी अनुचित है कि जिस सामाजिक आधार पर उन्हें आरक्षण दिया जाता है, वह इस्लाम या इसाई धर्म अपनाने के बाद समाप्त हो जाता है। क्योंकि इस्लाम या ईसाई धर्म अपनाने के बाद भी भारत की वर्तमान सामाजिक पृष्ठभूमि में वांछित परिवर्तन नहीं हो पाती। इस संबंध में रंगनाथ मिश्रा आयोग की सिफारिशें आंखें खोलने वाली हैं। जमीयत उलेमा-ए-हिंद की तरफ से यह याचिका एडवोकेट एमआर शमशाद ने दायर की है और उच्चतम न्यायालय से अपील की है कि याचिकाकर्ता को 2004 की सिविल रिट याचिका संख्या-180 में हस्तक्षेप करने की अनुमति दी जाए और उचित एवं सही निर्णय कर के न्याय का मार्ग प्रशस्त किया जाए।

इस याचिका के सम्बंध में जमीयत उलेमा-ए-हिंद के अध्यक्ष व याचिकाकर्ता मौलाना महमूद असद मदनी ने कहा कि यह याचिका जमीयत द्वारा समय पर दी गई है। हमारा संगठन काफी समय से सरकारों से मांग करता रहा है कि धर्म के आधार पर भेदभाव करने वाला यह कानून समाप्त किया जाए और किसी को उसके अधिकारों से वंचति न किया जाए। आशा है कि उच्चतम न्यायालय हमारी याचिका पर विचार करेगा और इसे स्वीकार करते हुए भारत सरकार को धर्मनिरपेक्ष और न्यायपूर्ण भूमिका निभाने के लिए मजबूर करेगा।

समीर चौधरी।

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