आह: रफी साहब।वाह--रफी साहब।।--------31 जुलाई यौमे वफात पर-

आह: रफी साहब।
वाह--रफी साहब।।
31 जुलाई यौमे वफात पर------24 दिसंबर 1924 को पैदा होने वाले अज़ीम गुलूकार मोहम्मद रफी 31 जुलाई 1980 को इस दुनिया से रुख़सत हो गए थे।उन्होंने सबसे पहले नगमा 1941 को"गुल बलोच"फ़िल्म के लिए रिकॉर्ड कराया था और आख़री 1980 में "आस-पास"फ़िल्म के लिए।इस दरमियान में सैकड़ों गीत उनके गाए हुए---आए और संगीत की दुनिया मे अमर हो गए।
उन्होंने 36 ज़बानों में कई हज़ार नग़मे गाए------पर्दे पर कलाकार की इमेज के साथ आवाज़ बदलना---उनका ख़ास फन था।शम्मीकपूर,राजिंदर कुमार,दलीप कुमार,धर्मेंद्र से लेकर जानीवाकर, महमूद तक उन्होंने----आवाज़,अंदाज़ को बदला------हर गीतकार,संगीतकार,फ़िल्मसाज़,हिदायतकार,साथी गीतकार के साथ रफी साहब ने बगैर अना के लाजवाब और लाज़वाल गीत गाए।
उनको 6 फ़िल्मफ़ेयर अवार्ड और 1967 में पद्मश्री सम्मान मिला।रफी साहब की वफात को 42 साल गुज़र गए----मगर उनकी मक़बूलियत में कोई कमी वाक़ए नही हुई-----उन्होंने हर तरह के गीत को आवाज़ दी----ग़ज़ल,नज़्म,भजन,रोमांटिक,जुदाई, मिलन, दोस्ती,रुख़्सती,उछल-कूद, मौज-मस्ती----यानि ज़िंदगी का हर रंग,हर रूप,हर अंदाज़ उनके गीतों में मिलता है-----आवाज़ मरती नही----रफी साहब इसकी ज़िंदा मिसाल हैं----U ट्यूब की आमद के बाद उनकी मक़बूलियत दुगनी हुई----उनके अनछुए पहलू सामने आए------------उनके हज़ारों गीतों में मुझे हर गीत अच्छा लगता है----मगर"तुम मुझे यूं भूला ना पाओगे"(पगला कहीं का)और "दिल का सुना साज़-ज़माना ढूंढेगा"(समझौता)के गीत मुझे बेहद पसंद हैं।
रफी साहब नेक तबियत,हाजी और नमाज़-रोज़े के पाबंद थे-----उनके चेहरे पर हमेशा मुस्कुराहट सजती थी।

विचार:कमल देवबन्दी (विचारक)

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