"जिनका लिखना-पढ़ना ही जीवन था"-------वरिष्ठ लेखक, वक्ता मरहूम आदिल सिद्दीक़ी।

"जिनका लिखना-पढ़ना ही जीवन था"-------वरिष्ठ लेखक, वक्ता मरहूम आदिल सिद्दीक़ी।
पहली बरसी पर।(कमल देवबन्दी)
वक़्त और मौत के हाथों से कौन बचा है----तय शुदा वक़्त पर मौत का फरिश्ता---लम्हे भर में इंसानी जिंदगी को ख़ाक कर देता है।मगर अल्लाह रब्बुल इज़्ज़त के ज़रिए दी गई ज़िन्दगी में आदमी जो अमल,फिक्र,जदोजहद करके---ख़िदमत और कारनामे अंजाम देता है---वो इंसानी तारीख़ में उसकी मौत के हज़ारों साल बाद भी याद किया और दोहराया जाता है।
देवबन्द की सुनहरी उर्दू-हिंदी साहित्य के इतिहास में मरहूम आदिल सिद्दीक़ी का बड़ा नाम किसी परिचय का मोहताज नही है---वो जब तक जिए पढ़ना-लिखना उनके लिए सांस लेने के समान था।6 मार्च 1930 को दारुल उलूम देवबंद के प्रसिद्ध उस्ताज़ मोहम्मद मुशफ्फा रह.के परिवार में जन्मे आदिल सिद्दीक़ी ने केंद्र सरकार की संस्था(सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय)में केली ग्राफ़िक्स के पद पर नियुक्ति प्राप्ति के पश्चात कुछ समय बाद ही प्रोन्नति प्राप्तकर असिस्टेंट इंफॉर्मेशन ऑफिसर के रूप में उर्दू मासिक पत्रिका"आजकल"में सेवा देना आरम्भ की।यहीं से 1981 में "योजना"नामक उर्दू पत्रिका के सफल प्रकाशन में महत्वपूर्ण भूमिका अदाकर 1988 में सेवानिर्वित हुए।
इसके अतिरिक्त उन्होंने राष्ट्रीय स्तर के उर्दू समाचार पत्रों में लिखा।व्यक्ति विशेष पर लिखने में उन्हें हुनर हासिल था।उन्होंने देश के नामचीन लोगों पर लेख लिखकर उनको युवा पीढ़ी में जिंदा किया।उन्होंने आल इंडिया रेडियो के प्रसिद्ध कार्येक्रम शम्मे फरोज़ा, हुरुफे ग़ज़ल,दिल्ली डायरी में लंबे समय प्रतिभाग किया।
उनका अंतिम समय विश्व प्रसिद्ध शिक्षण संस्थान दारुल उलूम देवबंद के प्रेस प्रवक्ता के रूप में पूर्ण हुआ।
------जाने वाले कब लौटे हैं----आदिल साहब,बेहद सादा ज़िंदगी गुज़ारकर इस दुनिया से गत वर्ष 15 जनवरी 2021 को रुख़्सत हुए थे----मगर उनकी अदबी ख़ासतौर से उर्दू के लिए की गईं सेवाएं हमेशा याद की जाएंगी।
"हम क़तरा ए गुलशन की तरह उड़ जाएंगे इक दिन----एक याद सी रह जाएगी गुलशन में हमारी"।

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